वीरान गलियाँ या मुक़द्दर ?
वीरान गलियाँ या मुक़द्दर ?
गलियाँ वीरान है;
मुहल्ले सुनसान है;
क़ैद में इंसान है;
आज़ाद, पंछी और हैवान है।
परिंदे अब चहक रहे है;
फूल फिर से महक रहे है;
हवा में ताज़गी लचक़ रही है
मानो कोई जवानी, बहक रही है ।
प्रदूषण के बादल छट गए है;
शोर शराबा सब घट गए है;
सड़कों पे से सब हट गए है
घरों में अब सब डट गए है !
मगर, जिनका नहीं कोई आशियाँ
वो सब, जाए, तो जाए कहाँ ?
कष्ट ही कष्ट है उनके लिए यहाँ,
पीड़ा उनकी, कोई कैसे करें बयां ?
स्वास्थकर्मी जुटे है दिन-रात,
अन्य सेवाओं की भी क्या करे बात ?
जोखिम में डाल के अपनी ज़ात,
लगे है सब करोना को देने मात ।
अब ना कोई गर्मी, ना गुमान;
ख़तरे से ना कोई अनजान;
मनुष्य इस कदर परेशान;
या खुदा ! यह तेरा कैसा बयान ?
एतिहाद से सब घर है
जायज़ है; इतना डर है
होगा वही,जो मुक़र्रर है
बाक़ी तो सब मुक़द्दर है !
