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Shabbir Beguwala

Others

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Shabbir Beguwala

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वीरान गलियाँ या मुक़द्दर ?

वीरान गलियाँ या मुक़द्दर ?

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गलियाँ वीरान है;

मुहल्ले सुनसान है;

क़ैद में इंसान है;

आज़ाद, पंछी और हैवान है।


परिंदे अब चहक रहे है;

फूल फिर से महक रहे है;

हवा में ताज़गी लचक़ रही है 

मानो कोई जवानी, बहक रही है ।


प्रदूषण के बादल छट गए है;

शोर शराबा सब घट गए है; 

सड़कों पे से सब हट गए है

घरों में अब सब डट गए है !


मगर, जिनका नहीं कोई आशियाँ 

वो सब, जाए, तो जाए कहाँ  ?

कष्ट ही कष्ट है उनके लिए यहाँ,

पीड़ा उनकी, कोई कैसे करें बयां ?


स्वास्थकर्मी जुटे है दिन-रात,

अन्य सेवाओं की भी क्या करे बात ? 

जोखिम में डाल के अपनी ज़ात,

लगे है सब करोना को देने मात ।


अब ना कोई गर्मी, ना गुमान;

ख़तरे से ना कोई अनजान;

मनुष्य इस कदर परेशान;

या खुदा ! यह तेरा कैसा बयान ?


एतिहाद से सब घर है 

जायज़ है; इतना डर है 

होगा वही,जो मुक़र्रर है 

बाक़ी तो सब मुक़द्दर है !



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