मालिक नहीं, किरायेदार !
मालिक नहीं, किरायेदार !
चीन से कोहराम उभर गया
डिज़नी का जादू उतर गया
पेरिस का रोमांस उजड़ गया
न्यू यार्क का घमंड उखड़ गया।
यह कैसा, अनोखा है जोश ?
एक दूजे को, क्यूँ करते हो कोस ?
धर्म के नाम पे क्यूँ देते हो दोष ?
ऐ इंसान! कब आएगा, तुझ को होश ?
मस्जिद सब वीरान हैं
गिरजा सब सुनसान है
मंदिर बिन भजन-गान है
रब, हमसे कैसा परेशान है।
गले मिलना एक अपराध है
ना आमने-सामने कोई संवाद है
नहीं मिल-जुलने पर कोई विवाद है
बुज़ुर्गों का अब तो दूर से आशीर्वाद है।
प्रकृति से ना करो खिलवाड़
बेरहमी से ना उसे करो उजाड़
पृथ्वी के संदेश को गर ना दोगे दाद,
फिर किनसे करोगे तुम फ़रियाद ?
स्वच्छ और साफ़ माहौल है आज,
धरती नहीं, कभी मनुष्य का मोहताज
जल, वायु, आसमान करते है राज
हर दिशा में देखो, बदला है मिज़ाज !
अचानक, होता है यह एहसास
धन-सम्पत्ति ना अब लगे ख़ास
शुक्र है कि चलती है साँस
ज़िंदगी का है, बस यहीं अभ्यास!
घर-ग्रस्त हो अब; सोच लो एक बार,
घर की सीमा, जब भी करो पार
वातावरण का व्यक्त करो आभार
क्यों कि मालिक नहीं, तुम हो किरायेदार !
