क्या कहूँ उससे
क्या कहूँ उससे
क्या कहूँ उससे, की जो बात समझता ही नहीं,
वो तो मिलने को मुलाकात समझता ही नहीं।
उसकी जीत में मेरी जीत, उसकी हार में मेरी हार है,
ये बात वो समझता ही नहीं।
टूटा जो ये दिल तो वो भी बिखर जायेगा,
उलफतों-के-अल्फाज समझता ही नहीं।
बहुत नादान है वो, दिल-ए-हालात समझता ही नहीं,
क्या कहूँ उससे, की जो बात समझता ही नहीं।
अपने ही अरमानों के कफ़न में लिपटी मैं,
गमों के-सैलाब-समझता ही नहीं।
छोड़ तो दूँ, दुनिया मगर,
मुझे हमराह समझता ही नहीं।।

