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Raj Mishra

Abstract

4.7  

Raj Mishra

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क्या फ़र्क पड़ता है

क्या फ़र्क पड़ता है

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क्या फ़र्क पड़ता है,

दिल पर ज़ख्म एक हो या हज़ार

हर दिन हो,ख़ास हो या हो कोई त्यौहार।


उठती हैं टीसें,

सहती हूँ अत्याचार,

बेढ़ब, स्वेच्छाचार की राजनीति पर

तुम पलते हो जैसे सदाबहार

ख़ैर, क्या फर्क पड़ता है

अब मरूँ एक बार या फिर बार बार।।


कर देते हो मंडित 'श्रद्धा' से 'श्रेष्ठ' से

वेदों में, कविता में, किताबों में, अखबारों में।

करते हो मेरे हक़ की बात

फिर भी कर जाते हो नैन-नक्श

अदा, छोटे कपड़ों का व्यापार

इस अनंत, अतृप्त, गिद्धों से भरे

बाज़ारवाद के दरबारों में।।


हाँ, अब हूँ बनी स्वावलंबी,आत्मनिर्भर

बन रही हूँ सशक्त

भरती हूँ दम्भ, निकली हूँ तोड़कर तुम्हारे अहं को

फिर क्यों कहते हो कि, तुम कुलटा हो।

क्यों रे बौद्धिक, साधु-जन

क्या अब हो चले नव-सामंत

या फिर सच में जन्मे उलटा हो।।


क्या फ़र्क पड़ता है,

अगर प्रकृति ने तुम्हें जन्मा उलटा है

कहीं हो रही हूँ अस्मतहीन, कहीं बेघर

तुम पर कर यकीं, हो बेख़बर

फिर भी बन हिस्सा भीड़ का

खड़े हो, देख तमाशा कहते हो 

क्या फ़र्क पड़ता है।।


हाँ, हूँ मैं अब उन्मुक्त

हूँ मैं अब आज़ाद

पर नहीं हूँ व्यभिचारिणी 

देकर जन्म तुम्हें बनती हूँ कर्णधारिणी

देती हूँ तुम्हें एक धरातल,

पर शायद अब भी नहीं हुए हो मानव

इसलिए करते हो भोग, और कहते हो

क्या फ़र्क पड़ता है।।



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