क़ुदरत का पैग़ाम
क़ुदरत का पैग़ाम
ऐ ख़ुदा कु़दरत में तेरी,
ये जो कुछ भी समाया है,
ना जाने कौन से जादू से,
आलम को सजाया है।
ये पर्वत की ऊँचाईयाँ,
ख़्वाब ऊँचे दिखाती हैं,
ये बादल और घटायें भी,
चाहतें दिल जगाती हैं।
अब्र की बूँद की खु़शबू,
चढ़ाती है नशा कैसा,
सब्र करना हमेशा तुम,
ज़मीं में सब्र है जैसा।
तमन्नाओं की ये कलियाँ,
कहीं शाख़ों पे लगती हैं,
तभी उम्मीद की किरणें,
मेरे सीने में जगती हैं।
ये सूरज का निकलना और,
शाम होते ही ढल जाना,
बताता है हमें फानी,
कूच हमको है कर जाना।
चुनौती है अँधेरों को,
चमकना चाँद तारों का,
जीत लेता हर इक बाज़ी,
साथ रहना हज़ारों का।
समन्दर कह रहा हमसे,
राज़ सबके छिपा लो तुम,
बना लो दिल को गहरा और,
गले सबको लगा लो तुम।
ये कोहरा क्या सिखाता है,
संभल कर हमको चलना है।
घमंड ना कर हमें इक दिन,
बर्फ जैसे पिघलना है।
करें गर ग़ौर दुनिया तो,
समझ में बात आयेगी,
ये क़ुदरत रास्ता सच्चा,
हमें हर पल दिखायेगी।