कुछ तो नहीं है
कुछ तो नहीं है
समय की भी कैसी विडम्बना है
बहार सब कुछ है, और कुछ नहीं भी
खुली सड़कों पर, दूरियाँ तो हैं
पर दूरियों को तय करने वाले नहीं
वादियों में ठंडी हवायें तो है
पर बहार निकल के
उन्हें महसूस करने वाले नहीं
धुले-धुले से सुन्दर बगीचे में
कोमल-कोमल से बच्चे नहीं
वो बगीचे में लगे झूले
जैसे राह देखते ही थक चले
मंदिरों में लटकी घंटियाँ तो वही हैं
बस वो सुकून देने वाली आवाज़ नहीं है
भगवान के उस चौबारे में आज
उन फूलों और धूप की सुगंध नहीं है
ये इस समय की अजीब विडम्बना ही है
सब कुछ वही है, पर, कुछ तो नहीं है.
