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Jyoti Astunkar

Abstract Romance Classics

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Jyoti Astunkar

Abstract Romance Classics

खुली आँखें

खुली आँखें

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सालों बीत गए, हम तुम मिले,

कितने पहर और कितने मौसम,

हिसाब नही रखा कभी,

जिंदगी के उतार चढ़ावों में,

पीछे मुड़कर न देखा कभी,

गुजरती रही ज़िन्दगी बस तुम्हारे साथ।


हाथों की लकीरों ने जगह बदलकर,

चेहरे पर आसरा बना लिया है,

उन लकीरों में अब, भाव नज़र आते हैं,

आंखों के कोनों पर पड़ी बारीक लकीरें,

खुश होती हूं तो फैल जाया करतीं हैं,

और दुख में सिमट सी जाती हैं।


बैठे-बैठे कभी एक टक लगाए,

खिलौनों और तोतली यादों में खो जाती हूं,

और कभी कॉलेज और बायोडाटा क

े कागज़ों में,

कहीं गुम सी हो जाती हूं,

कभी आर्थिक परिस्थिति की सोच में,

तो कभी सामाजिक बंधनों की ओढ़ में।


हम साथ में जब चाय पिया करते थे,

बातों में हमारी किस्से भी कुछ ऐसे ही हुआ करते थे,

अब सुकून है,

और तुम्हारी सादगी भरी आवाज है,

चाय ठंडी हो रही है, कहां हो तुम?


और यह सुनते ही, मेरी खुली आंखे, 

खुल सी जाती हैं,

खिड़की से बाहर झांककर,

एक सुकून का आनंद लेती हैं...


और कहती हैं, बस हुआ अब,

चलो अगले महीने,

कही घूम आते हैं।


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