कर्तव्य की पुकार
कर्तव्य की पुकार




आज लेखनी ने पूछा
क्यो इतना मौन हो तुम
कहा खोई शब्दो की माला
क्यो इतना उदास हो तुम
कौन सी पीड़ा तुम्हे सताए
जरा मुझे भी बता दो तुम
तेरे भाव मै पिरोकर
सजाती हूँ कोरे कागज पर
पर न खामोश रहना यूँ
काज तुझे कुछ अधिक है करना
बन ममत्व की मिसाल
पीड़ा जन जन की हरना
सुन कर मैं लेखनी की वाणी
बोली मैं सच कही तूने कहानी
यही तो पीड़ा सता रही हैं
दुःख मानवता का देख
हर पल मुझे रुला रही हैं
मैं मौन थी इस चिंतन में
कि क्या पहुँचूंगी जन जन के मन में,
बना पाऊँगी पुनः सुंदर जहाँ
सजा दूंगी हर अंतःकरण यहाँ
मैंने सोचा मैं हूं अकेली
पर जब तू साथ है
तो जहाँ जीत सकती हूँ
हर होठो पर मुस्कान सजा सकती हूं
बदल सकती हूं जहाँ
त्याग, तप, प्रेम के पुष्प जहाँ
एक कदम उठाओ
तब राह बनती हैं
मुस्कान तब हर मुख पर सजती हैं।
हाँ जीत सकती हूं
जहां, जब तेरा साथ है
ये मेरा विश्वास है,
ये मेरा विश्वास है।।