कर्म या परख
कर्म या परख
रुख़ अख्तियार करते है।
हमें जार जार करते है।
कर्मों की बारिश से हम,
ख़ुद को बेरोजगार करते है।
रूह कही नहीं जाती,
कर्मों का हिसाब रखती है।
ख़ूबसूरत ज़िन्दगी जी हो तो,
कर्मों से हिसाब-किताब करती है।
