कितना लिखूं, क्या लिखूं
कितना लिखूं, क्या लिखूं
बहुत देर तक सोचा, सोचा क्या लिखूं
तुम्हें कितना लिखूं, तुम्हे क्या लिखूं
तुम्हे मुहब्बत लिख दिया, और वफ़ा भी
तुम्हे कुरबत लिख दिया, और सज़ा भी
तुमसे दूर होकर भी तुमको महसूस किया है
हर सांस में इस तरह तेरे नाम को जिया है
काग़ज़ तो काग़ज़ ही है,
कैसे लिख पाएगा मुकम्मल तुमको
अगर लफ्ज़ों में बांध पाती,
तो क्या जाने देती यूं पल पल तुमको
हर बार ख़्वाब में तुमसे बहुत बातें की है
मगर तुम्हें छूने से पहले ही सवेरा हो जाता है
मैं कितने ही काग़ज़ भर लूं,
तेरी याद में हर नज़्म अधूरा रह जाता है
और फिर यही सोच में पड़ जाती हूं
तुम्हें कितना लिखूं, तुम्हे क्या लिखूं।