किसका किससे प्रेम ?
किसका किससे प्रेम ?
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ये जो बादल का प्रेम
दिखाई देता है न
धरा के लिये
नहीं है ये
कोई प्रेम
ये तो है बस
बादल के
अपने दिल का बोझ
जो जब कभी
भर देता है
उसका अन्तर्मन
तो बस
अपने ही मन को
हल्का करने को
बरस पड़ता है
टूट कर धरा पर
भिगो देता है कभी
तो कभी तोड़ देता है
नदियों के भी तट बन्धन
कर देता है सर्वनाश
ये तो धरा ही है
जो रखती है धैर्य
और उसी विध्वंस से
एक दिन
फूट पड़ते हैं
कुछ नवांकुर
और हो जाती है धरा
हरी-भरी
इसे तुम चाहो तो
कह दो
बादल का प्रेम
धरा के लिये
लेकिन क्या यही प्यार है ?