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विशाखा शर्मा 'ख़ाक'

Romance

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विशाखा शर्मा 'ख़ाक'

Romance

किरकिरा प्रेम

किरकिरा प्रेम

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शहतूत सरीखा मीठा 

तो कड़वा

बहुत देर तक

उबाले हुए


कहवे सा 

खारा-खारा आँसुओं सा 

तो चुरा लाया है

कसैलापन

आँवले से 


कुल्हड़ में जमाए हुए 

दही जैसा खट्टा तो

चटपटापन लिए हुए

इमली सा 


स्पर्श कभी मखमली ऐसा 

कि जैसे 

अँगुली से

छू दिया हो 

बीरबहूटी को 


और कभी 

खुरदरा ऐसा कि

हाथ फेरा हो 

पीपल के तने पर


गर्म इतना कि

जैसे पूस की ठिठुरती

सांझ में 

चौपालों पर


जलती अलाव

और ठंडा इतना कि

जैसे अमराई की

सघन छाँव


पास इतना कि

मेरी यादों की 

कुटिया में 

चौकी पर ही बैठा है

और दूर इतना कि

 जैसे दिखता नहीं 


अपनापन ऐसा कि 

समा गया मुझ ही में

और पराया ऐसा कि 

छत्तीस (३६)की संख्या में

मुहँ फेरे हुए छह(६)


रंगीन ऐसा जैसे

 इंद्रधनुष

और 

बेरंग मानो पानी


 दृश्यमान इतना 

कि जितना 

इन दो आँखों में समा जाए 

 और 

अदृश्य ऐसा 

जैसे पवन


माना 

किरकिराहट भी है 

मेरे 'प्रेम ' में

लेकिन बिल्कुल

'वंशलोचन' जैसी !


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