रे जीवन !
रे जीवन !
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रे जीवन
कितना और छलेगा
मौन संकल्पों से तू
प्रतिशोध को ही पुष्ट करता
स्वयं से ही तुष्ट होकर
स्वयं को ही रुष्ट करता
आप ही अपनी अगन में
और अब कब तक जलेगा
रे जीवन..
प्रण कभी साकार होगा ?
या विलुप्त हो निराकार होगा
या हिस्से में ही विकार होगा
या कंटकों का संहार होगा
अन्तस् की झीनी झोली में
और कितना द्वंद्व पलेगा
रे जीवन..
संयमित होकर चला कभी
और कभी ओढ़ा पशुत्व
उत्साह का प्रश्रय लिया कभी
और जिया कभी होकर क्षुब्ध
विपरीत चल ! यू परिस्थिति के
साँचे में कब तक ढलेगा
रे जीवन कितना और छलेगा।
