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विजय बागची

Abstract

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विजय बागची

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ख्वाबों में खोकर

ख्वाबों में खोकर

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ख़्वाबों में खोकर कभी कोई सच न पाया,

हुआ कुछ ऐसा मेरे साथ कि बच न पाया।


मैं गुमराह न था हर रस्ते का पता जानता था,

अंधेरों में खड़े शख्स का चेहरा पहचानता था,

फर्क बस था इतना सुकूँ का कोई ख़त न आया,

ख़्वाबों में खोकर  कभी कोई सच न पाया।


था निकला इक मकां से इक मकां पाने के लिए,

आँखें खोल के सचमुच का महल बनाने के लिए,

किसने था टोक रक्खा मैंने कोई छत न पाया,

ख़्वाबों  में खोकर कभी कोई सच न पाया।


अभी भी जानता हूँ जो सोचता हूँ वो पा लूंगा,

पूरा नहीं तो अधूरा सही नसीब आजमा लूंगा,

वक़्त गुज़रता रहा मग़र इक कतरा न रच पाया,

ख़्वाबों में  खोकर कभी कोई सच न पाया।



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