ख्वाबों में खोकर
ख्वाबों में खोकर
ख़्वाबों में खोकर कभी कोई सच न पाया,
हुआ कुछ ऐसा मेरे साथ कि बच न पाया।
मैं गुमराह न था हर रस्ते का पता जानता था,
अंधेरों में खड़े शख्स का चेहरा पहचानता था,
फर्क बस था इतना सुकूँ का कोई ख़त न आया,
ख़्वाबों में खोकर कभी कोई सच न पाया।
था निकला इक मकां से इक मकां पाने के लिए,
आँखें खोल के सचमुच का महल बनाने के लिए,
किसने था टोक रक्खा मैंने कोई छत न पाया,
ख़्वाबों में खोकर कभी कोई सच न पाया।
अभी भी जानता हूँ जो सोचता हूँ वो पा लूंगा,
पूरा नहीं तो अधूरा सही नसीब आजमा लूंगा,
वक़्त गुज़रता रहा मग़र इक कतरा न रच पाया,
ख़्वाबों में खोकर कभी कोई सच न पाया।
