खुद को संभाल
खुद को संभाल
क्या तू रोती है बदकिस्मती पर अपनी,
खुद को संभाल कद्र कर अपनी।
जो आज है शायद कल ना हो,
आज में जीना, कल का डर ना हो।
बेकरारी है तुझमें जहां भर की,
पर आज है तू, कहीं मूरत ना बन जाए कल की।
अरे चोट तो सब खाते हैं कभी ना कभी,
पर इसके दर्द से डगमगाते नहीं सभी।
तेरी किस्मत तू खुद लिखती है,
तू जो है शायद वह नहीं दिखती है।
मगर कब तक इस जहां को धोखा देगी?
किस-किस को खुद को चोट पहुंचाने का मौका देगी?
तू कमजोर है, तेरी ताकत किसी अपने में है,
पर वह अपना शायद सिर्फ तुम्हारे सपने में है।
उम्मीद क्यों करती है, लाखों बार भी गिरने के बाद?
और फिर गिरने का इंतजार करती है,
कई दफे संभालने के बाद?
जरूरी नहीं कि तेरी सच्चाई हर कोई जाने,
खुद को जमाने के सच में ढालो तो माने।
फिर भी न जाने क्यों, रोज खुद को सँवारती है,
दूसरों को जिताने के लिए, कई बार खुद से हारती है।
क्या तू रोती है बदकिस्मती पर अपनी,
खुद को संभाल, कद्र कर अपनी।।
