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Dr Priyank Prakhar

Abstract

4.3  

Dr Priyank Prakhar

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खोटे सिक्के

खोटे सिक्के

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कुछ सिक्के ठसके से चलते थे गांवों में,

रूख करके शहर का बेचारे खोटे हो गए।


घर हो गया था बड़ा उनका बेगाने शहर में,

रिश्ते दिलों के थे जो वो सारे छोटे हो गए।


यहां रिश्तों में पसरा था अजब सा सन्नाटा,

सस्ता था जीवन महंगा दाल चावल आटा।


भागे थे शहरों को औरों की देखा देखी,

शहर तो थे सपनों की एक हाट अनोखी।


जहां ममता की भी बोली थी लग जाती,

वक्त पड़े रिश्तों की खाल उधेड़ी जाती।


खलने लगा थी उनको इन शहरों का शोर,

लौट आये फिर से वो अपने गांव की ओर।


अब कहते थे कितना अच्छा अपना गांव,

जहां है अपनापन और ममता की छांव।


बुलाती थी गांव की ये नहर मुझे इशारे में,

सपनों में भी जो आकर पूछे मेरे बारे में।


शहर के ढोल की लो आज पोल खुल गई,

चढ़ी थी चमकीली परत एक वो धुल गई।


सुबह के भूले को भी याद घर की आ गई,

वक्त की चाल सच्चाई तीखी दिखला गई।


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