“ खो गया अपनापन “
“ खो गया अपनापन “
कभी मैं सोचता हूँ,
कि उनसे बात करूँ !
कभी मैं सोचता हूँ,
कि कुछ उनको लिखूँ !!
पर ठिठक जाता हूँ,
कहीं बुरा ना लगे !
लिखने से डरता हूँ,
जबाव भी ना मिले !!
जब साधन नहीं थे,
हम सब तरसते थे !
लोगों के टेलीफोन,
का इंतजार करते थे !!
अब नेट का जमाना,
आके फैल गया है !
सबके हाथों में यह,
यंत्र मिल गया है !!
फिर भी हम लोग,
बात करते नहीं हैं !
उनके दुख दर्द को,
कभी समझते नहीं हैं !!
दोस्त भी मैंने काफी,
फेसबुक में बना रखा है !
पर उनसे भी बातें कहाँ,
फोटो ही सजा रखा है !!
सब अपनी धुन में हैं,
किसी की परवाह नहीं !
मैं उन्हें कुछ भी लिखूँ,
उन्हें लिखने की चाह नहीं !!
यह रोग चारों तरफ,
करोना बन गया है !
अपने पड़ोस में भी,
ओमीक्रॉन फैल गया है !!
निमंत्रण आमंत्रण को,
व्हाट्सप्प कर देते हैं !
सहयोग आत्मीयता को,
हमलोग खो देते हैं !!
प्यार अपनापन हमें,
आजन्म तक मिलता नहीं !
उजड़े हुए वीरान में,
फूल आत्मीयता का खिलता नहीं !!