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Surendra kumar singh

Abstract

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Surendra kumar singh

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खिड़की से

खिड़की से

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बन्द कमरे की खिड़की से

दिख रहा है पूरब में

निकलता हुआ लाल गोला,

कमरे के बाहर के अंधेरे का

रंग बदल रहा है

जाने कितने रंग झर रहे हैं

रंग रहा सब कुछ।


आज जरूर कुछ खास है

उधर आकाश में सूरज झांक रहा है

और इधर कमरे के दरवाजे पर

खुशियां नाच रही है

तरह तरह की खुशियां

रंग बिरंगे परिधान।


कभी मैं उगते हुये सूरज को देखता हूं

तो कभी नाचती हुयी खुशियों को

पर इतनी भर तो नहीं है

आज की ये सुबह

जाने कितने सपने

जाने कितनी कामनायें

अपना आकर लेने के लिये

गुजारी हैं रातें रात के साथ।


अब उनका आकारित होना

इस बात पर निर्भर है कि

दिन में रात का कितना असर

अभी शेष है

और मैं समझ सकता हूँ

एक सूरज आकाश में उगा है

डूब जायेगा

और एक सूरज और है

जो न उगता है न डूबता है

रौशन रौशन रहता है।


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