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sunil saxena

Abstract

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sunil saxena

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खेल खिलाड़ी और दर्शक

खेल खिलाड़ी और दर्शक

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खिलाड़ियों को ही खिलाड़ियों की बातें समज आती हैं

दर्शक तो होते हैं ताली बजाने और हंगामा करने के लिए

लेकिन उन्हे पता नहीं की असली

हंगामा करने वाले तो खिलाड़ी ही होते हैं

दर्शक तो केवल हंगामें की दुम का बाल होते हैं

हवा में हिल कर शोर मचाने के लिए


ना जाने वो दर्शक खेल की रंगत और ना जाने वो खिलाड़ी की मेहनत

दर्शक तो केवल शोर शराबा हंगामा मचाने के लिए होते हैं

वरना क्या ख़ाक मज़ा खेल खेलने का

बिना दर्शक हंगामें के ही खेलना होता तो 


खिलाड़ी खेल न लेते जाके किसी खाली स्टेडियम या शमशान में

खिलाड़ी बुलाते हैं दर्शक को खेल और खिलाड़ी पर बोलने के लिए

केवल खेल की कॉमन्टिरी में चटपटे रंग भरने के लिए

वरना वो दर्शक जो खेला हो खेल अपने बचपन में


अपने गुसलख़ाने के दरवाजे के बाहर गली में लौंडॉ के साथ

क्या समझेगा खिलाड़ी की मेहनत उसका मस्तिष्क और खेल का अस्तित्व

खिलाड़ी खेल खेलता है तो दर्शक ताली बजता है

खिलाड़ी है तो खेल है और खेल खिलाड़ी है , तो दर्शक है

दर्शक समझता है की वो है बहुत दीवाना खेल के बारे में


लेकिन वो क्या जाने खिलाड़ी के संघर्ष को संकल्प को

योग्यता को परिश्रम को दृढ़ता को तप को तपस्या को

वो है खिलाड़ी की खेल की असली दीवानगी

केवल कमरे के सोफ़ा पे टीवी के सामने बैठना


और स्टेडियम में हंगामा करने को

समझता है दर्शक दीवानगी

ये खेल खिलाड़ियों का है

खिलाड़ियों के दांव-पेंचों का है

खिलाड़ियों की मैदान पर योग्य कलाकारी का है

दर्शक तो केवल बंदर है मदारी का 

और मदारी है खिलाड़ी, 

हर खेल तो खिलाड़ी का है खेल खिलाड़ी का है।


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