खामोशियां
खामोशियां
सुनो
खामोश क्यूँ हो
कुछ कहो ना
बड़े दिन हो गए
आज सुनने को
ज़ी चाहता है।
वही नज्म
जो कभी
मेरे लिये तुम
दिनों-रात
गाया करते थे।
खूबसुरत गज़ल हो
मेरी किताबों की तुम
या परी हो
जन्नत की।
तब मैं हंसकर
जवाब देती थी
मैं गज़ल नहीं कोई
शायर का कलाम हूँ
किताब नहीं हूँ मैं
काली स्याही की लेखनी हूँ।
महताब जो रह न सके
चांदनी से रौशन हूँ
स्वर्ग के देवताओं की
आपसरा मोहक रुप हूँ।
जो चाहे समझो
कह लो चाहे जो
मैं तो तेरे रूह की
बिन बोले पहचान हूँ।
सुनकर
बहुत अच्छा लगा
दिया बाती सा साथ हमारा
जो साथ कभी हो गए
तो जल जायेगा
ये ज़माना सारा।
