खामोश अनकही
खामोश अनकही
खामोशी मुस्काती है,
कोने में खड़ी लजाती है
उनका हाथ थाम दूर कहीं
जाने को रहा रह कर मचलती है
रूठती है, खुद ही मान जाती है
चुन कर आंसुओं के मोती,
रूप अपना सँवारा करती है
तपती है प्रेम में पर राह तका करती है
खमोशी हर बात कहती है,
पर
कहने से डरती है
नेह की रागिनी
अनकही रह न जाए कहीं
कभी तो समझो प्रिय
ख़ामोशी क्या कहती है !