कबाड़ वाला
कबाड़ वाला
वो बेचारा नंगे पांव
कूड़े के ढेर में
बैठा चुन रहा है कूड़ा,
हर तरफ उसके
कूड़े के ढेर लगे हैं
मक्खियां मच्छर कीड़े मकोड़े
उसके आसपास मंडरा रहें हैं,
सारा इलाका बदबू से महक रहा है
पर उसे कोई फर्क नहीं पड़ता
वो आदी है इस बदबू का
वो खुद कई हफ्तों से नहाया नहीं है।
उलझे बाल फटे उधड़े कपड़े
पसीने से नहाया चेहरा
हाथ में लोहे की मुड़ी रोड
जिससे वो कूड़े को उलट पलट रहा है
अपनी खोई किस्मत उसमे ढूंढ़ रहा है।
आज उसका झोला
अभी तक खाली है,
कुछ किताबें, गत्ता,प्लास्टिक की बोतलें
चद्दर के टुकड़े ही वो झोले में भर पाया है,
पर उसे आज
इसे भर कर ही घर जाना है,
घर पर मां उसकी बीमार है
जिसे दमा जो हुआ है
इस कूड़े के ढेर में रह रह कर,
उसे उसके लिए दवा दारू भी करनी है।
छोटी सी उम्र में
परिवार का बोझ
इस मासूम का बचपन लील गया,
अभी उम्र है भी कितनी
मात्र आठ वर्ष
पर शहर भर की खाक
छानने का अनुभव रखता है,
इस उम्र में उसके कदम
कभी स्कूल में नहीं पड़े
लेकिन शहर के नामी स्कूलों के सामने से
उसने कूड़ा उठाया है।
आर्थिक तंगी बदहाली क्या होती है
ये वो ही जानता है
जिससे उसका परिवार बेहाल है,
दो जून की रोटी के लिए जद्दोजहद
समय ने उसे
समय से पहले ही सिखा दिया है।
कूड़े बेचने से
कुछ अतिरिक्त पैसा जब उसे मिल जाता है
तो मासूम ख़ुशी से उछल पड़ता है
पर सब्र उसके अंदर कूट कूट के भरा है,
हालांकि भोला मन
उसका भी ललचाता है,
पर मां का चेहरा
उसकी बीमारी की फिक्र
उसे बस खाई जाती है,
आखिर वो ही तो बस
उसका एक मात्र सहारा है।
अभी पिछली रात पेट दर्द में
मां ने सोडा खा लिया,
वो कहती है
उसका दर्द ऐसे ही ठीक हो जाता है,
पर आज कुछ पैसे
ज्यादा मिल जाए तो
पेट भर खा सके
पिछले कुछ दिनों से
उसने और मां ने
ठीक से खाया भी नहीं है।
