कब आओगे ?
कब आओगे ?
पूछतीं हैं अक्सर मुझसे मेरी वो तन्हाईयाँ
वो गहन असीम शिथिल गंभीर गहराईयाँ
कब आओगे ?
अक्सर खुद से बातें करती हूँ मैं दो पल
पूछती हैं मुझसे वो बीते पलों की परछाईयाँ
कब आओगे ?
पलकों के इन झरोखों से थोड़ा पानी बरसा है
पूछती हैं वो बूँदें जो करती हैं रुसवाइयाँ
कब आओगे?
करके इंतज़ार दिले अंजुमन में परिंदे शायद सो चुके हैं
पूछती हैं वो कलियाँ तुमसे वो सारी सरगोशियाँ
कब आओगे ?
सूरज से शीतलता की कल्पना लिए जीती रही हूँ मैं
पूछती हैं वो ठंडक वो मेरी दिल की मदहोशियाँ
कब आओगे?
संगीत तुम्हारी बातों का मेरे लहू में बस चुका है
पूछती हैं वो थिरकन, वही उन्माद, वो शहनाइयाँ
कब आओगे ?