वृक्ष की ज़बानी
वृक्ष की ज़बानी
[कुल्हाड़ी की आवाज़]
ये आवाज़ कैसी ?
शायद कोई पेड़ काट रहा है,
या यूूँ कहूँ की मूक प्राणी की हत्या कर रहा है,
वृक्ष- जो बोल नहीं सकते, मूक दर्शक बने रहतें हैं,
आँधी , तूफ़ान, झंझावत सब सहते हैं,
तब भी खामोश खड़े रहतें हैं ;
परन्तु ये क्या – वो बोल उठे
शायद पीड़ा की पराकाष्ठा हो चुकी।
संपूर्ण वृक्ष जाति चीत्कार कर मनुष्य से मुखी –
“ऐ मूर्ख ! मत काट अपनी जीवन रेखा,
वृक्ष काटने का परिणाम क्या तूने नहीं देखा ?
स्वार्थ की आंधी में गिर कर इतना कृत्घन न बन,
काट कर हम निःसहाय प्राणियों को तू यूूँ न तन।
हम मूल हैं भारतीय सभ्यता और संस्कृति के,
तू लिप्त है ऋणों में इस प्रकृति के ;
प्राण वायु देतें हैं हम विषैली गैस लेकर ,
परन्तु मिली मृत्यु हमें , बदले में औषधियां देकर।
लकड़ी , फल, फू ल , छाया सब दिया तुझे ,
प्रत्येक अंग देकर सर्वस्व अर्पण किया तुझे।
पृथ्वी का तापमान नियमित और वर्षा कराते हैं हम,
भूस्खलन , बाढ़ एवं प्रदू षण को रोकते हैं हम।
वृक्षों की रक्षा हेतु चला चिपको आन्दोलन ,
बहुगुणा आदि ने मिलकर दिया एक नवजीवन।
हेमानव ! अगर नहीं बन सकता तू ‘बहुगुना’ ,
तो कु छ तो सीख ले, कु छ तो गुण अपना।
देख न निज वर्तमान को तू ,
भविष्य की नन्ही कलियों पर भी दे ध्यान तू।
वृक्षों के अभाव में वो कदापि न खिलेंगी ,
शुद्ध वायु के बिना , हाय ! वो कैसे पलेंगी ?
जाग अब तो जाग , हे चिरनिद्रा में रिक्त प्राणी ,
उठ देख और दे सबको शुद्ध वायु और पानी।
मत काट , हम शुभचिंतक हैं तेरे हमें अपना ,
रोपण कर हमारा और पर्यावरण को स्वच्छ बना।