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Rajesh SAXENA

Abstract

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Rajesh SAXENA

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काश !

काश !

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आया जब सैलाब तो बुनियादी ही उखड़ गई दरख्त की

आई जब पतझड़ तो शांखे दूर जाकर गिरी दरख़्त से।

माना थे ये दोनों मंजर अलग अलग,

मगर हुआ दरख़्त अपनी ही शाँखो से अलग-थलग।


वह भी एक दौर था, जब बुनियाद को गुमान था

अपनी शाखों पर ओर था शाखों को अपनी बुलंदी पर।

बेशक दोनों थे एक ही जर से,

मगर अंदाज थे दोनों के थे जुदा-जुदा।


एक नीचे और नीचे चलता गया और एक

अपने गुमान में ऊपर ही बढ़ता गया।

आज सैलाब के बाद ना बचा नामोनिशान बुलंदी का

और ना ही रहा ठिकाना बुनियाद का।


काश, वो जमीन और आसमान के फासले

ना बनने देते, ना वो दरख़्त में कमजोरियों की दरार पड़ने देते।

एक ऊंचाइयों के बावजूद झुकता,

और दूसरा बड़प्पन के साथ उठता।


काश ! ऐसा होता तो, आज कोई सा भी सैलाब

आकर चला जाता, मगर मजबूत दरख़्त

अपनी बुनियाद पर शाखों के साथ ही टिका नजर आता।


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