काश
काश
काश ये धरती, ये समंदर, ये आकाश,
बात कर पाते।
बुलाते, इन्हें अपने घर,
और खूब बतियाते ।
रात भर चलती गप्पे,
कुछ इनकी सुनते,
और कुछ अपनी सुनाते ।
और सुनाओ आकाश जीजा,
ऊपर कैसा चल रहा है,
आजकल खूब गर्मी फैला रहे हो,
किरण जीजी हाथ नहीं आ रही क्या ?
जीजा तो जैसे भरे ही पड़े थे
बोले ।
किरण दीदी को रोकने के लिए जो छतरी मिली थी,
उसमें बड़ा छेद हो गया है।
अब वो हमसे आकर बड़ा तमतमाती है।
बरखा मौसी भी अब ना वो पहले सा झमाझमती है।
धरती मइया के आंचल से अब बस जहाज ही ऊपर नहीं आता है ।
कोई तो लड़ रहा है तुम्हारा, जो राकेट और मिसाइल चलाता है।
कल तुम्हारी धरती मैया बड़ी उदास थी।
उसका निर्मल आँचल अब सूखा जा रहा है।
तुम्हारा आपस में लड़ना उसको अंदर ही अंदर खा रहा है।
समंदर भैया भी कल आये थे।
चाय पर चर्चा में लंबी कहानी सुनाए थे।
बोले कि क्या सुनेहरा कल था और क्या ही आज है।
आज कल यहां जल जीव से ज्यादा तो युद्ध के जहाज है।
ना जाने कब तुम्हें ये समझ आएगा।
ऐसे ही लड़ते रहे तो सब ख़त्म हो जाएगा।
मेरा मन अब भारी हो रहा था।
कहीं लिखी किसी कहानी को सच मान कर, मेरा घर तो अभी अभी लड़ा था
और इंसानियत को हराने का नया षड्यंत्र गड़ा था ।
मैंने नम आँखों से सबको विदा किया।
और सोचा, कि
काश ये धरती, ये आकाश, ये समंदर,
बात कर पाते।
शायद यही हमें समझाते कि
ऐसे युद्ध से हमारे परिवार का बस अंत ही होना है।
और अंत की तुम्हारी चाहे जो कहानी हो,
हमें तो बस तुम्हारी गलतियों पर रोना है।
हमें तो बस तुम्हारी गलतियों पर रोना है।
