काश मैं खुदगर्ज होता !!
काश मैं खुदगर्ज होता !!
कभी-कभी तो मैं सोचता हूँ, काश मैं इतना खुदगर्ज़ होता,
तो शायद ज़िंदगी यूँ न होती, और खुद के हाल पे मैं यूँ न रोता।
भाईचारे के हसीन सपने दिखाते हुए, कहते सबको भाई-भाई
पर दुर्भाग्य देखो, उन्होंने ही है मेरी ज़िंदगी की कश्ती डुबाई।
क्या नहीं था मैंने उनके लिए किया,
बस प्राण ही तो नहीं त्याग दिया!!!
सारे सपने बिखरे, जब आंखें मेरी खुली,
खुद को खूब अकेले पाया, न था साथ देने वाला कोई।
कभी-कभी तो मैं सोचता हूं, काश मैं इतना खुदगर्ज होता,
तो शायद ज़िंदगी यूं न होती, और खुद के हाल पे मैं यूँ न रोता।
कहने को तो सब साथ थे,
शुक्रगुज़ार हूं मैं इस मुश्किल वक़्त का,
जिससे सबके असली रंग तो दिखे।
अब नहीं संवारना ये ज़माना मुझे,
थक चुका हूँ मैं सबके झूठे कसमों वादों से।
समझ नहीं आता मुझे, कितनी अजीब है ये ज़माना हमारा..
अच्छाई को ही क्यों मिले दुख का अटूट सहारा??
कभी-कभी तो मैं सोचता हूँ, काश मैं इतना खुदगर्ज़ होता,
तो शायद ज़िंदगी यूँ ना होती, और खुद के हाल पे मैं यूँ ना रोता!!
