कारवां
कारवां
सिलसिला चलता रहा, कारवाँ बढ़ता रहा।
ज़िंदगी की राह में, संगीत स्वर बहता रहा।।
अफसाना कहता रहा, जाने कौन सुनता रहा।
काल की कालिमा को, हाथों से मिटाता रहा।
कौन था जो मौन को, मुखरित यूँ ही करता रहा।।
शब्द निःशब्द हुए, स्वप्न कब निष्प्राण बने।
सांसों की इस डोर में, नव प्राण फूंकता रहा।।
देखा है एक जूझते से, मौन वटवृक्ष को।
हम डाल काटते रहे, वो पुष्प सेज बिछाता रहा।।
