काफिर
काफिर
हैं काफिर तो क्या फिर जीने न दोगे,
खुदा के बिनाह पे सितम योँ करोगे !
ना मंदिर हैं जाते ना मस्जिद ही जाते,
ना आयत हैं पढ़ते न कलमा ही गाते।
मगर ये बता दें हैं इंसा बराबर ,
जमीं का हैं खाते जमीं पे लुटाते !
लहू सुर्ख मेरा भी है तो बराबर,
कहो गर दिखा देंगे जख्म लगाकर !
मगर फिर न कहना के खंजर गलत है
तुम्हे एल्म है के ये मंजर गलत है !
हैं काफिर तो क्या फिर जीने न दोगे
खुदा के बिनाह पे गला घोँट दोगे !
