कांपती डोंगी
कांपती डोंगी
जीवन की द्रुत मंझधार में,
हिलोरें लेते उफनते ज्वार में,
कांपती डोंगी, मन भयभीत हो जाता है।
आधा रास्ता बीता हंसते गाते,
अब आधे का अंत नजर आता है।
अभी ही तो.....,
जीवन आरम्भ हुआ था।
अभी ही तो.....,
पंखों को खोल गगन छुआ था।
अभी से ही......,
दिन ढलने का आसार नजर आता है।
इतने छोटे से जीवन में,
इच्छा अनंत पाली मन में,
गिरिशिखा पर जाने की चाह,
चढ़ गयी मन में भर उत्साह,
किन्तु, यह क्या........!
यहां से तो ढलान नजर आता है।
ढलान आयु का, शक्ति का,
कर रहा भय का संचार,
भय प्रिय से दूर जाने का,
भय है अपने खो जाने का,
बुलबुले सा जीवन का आधार नजर आता है।
तो चलूँ.....,
दूर, उस तलहटी में,
एक झोपड़ी बनानी है,
झोपड़ी कुछ ऎसे कर्मों की,
मानवता के हेतु हित की,
हर पीढ़ी चोटी से गुजरकर,
उसी तलहटी में आनी है।
