बूंद श्रम की
बूंद श्रम की
बांध कर सिर पर अंगोछा,
सींचते देश,
प्रत्यक्ष देव,
देश के अन्नदाता।
पालक देश के,
बालक धरा के,
मिट्टी में सने,
मिट्टी से बने,
सींचते वसुंधरा,
अपने रक्त से,
स्वेद कण से,
चुहचुहती बूंद श्रम की,
कर रही है प्रश्न मुझसे,
क्या श्रम कम है किसान का,
तुम्हारे श्रम से...?
क्यों ये अन्नदाता,
अभावों में समय बिताते हैं?
इन धरती के लालों ने,
चीरा बंजर धरती को,
तलवों में आ गयीं दरारें,
तब धरती की दरारें मिटाते हैं।
क्या उत्तर दूं.....?
नि:शब्द हूँ, मौन हूँ,
इस जीवनदायिनी बूंद के आगे,
मैं अस्तित्वहीन हूँ......
मैं कौन हूँ?