कागज़
कागज़
मेरे मन के भावों को
समा लेता है खुद में
उसमें दिखाईं देते हैं
मेरे मस्तिष्क के विचार
कभी भेद - भाव किसी से ना करता है
ना ही उसे कोई मतलब है
जो मैं बताना चाहती हूँ
चुपचाप सुनता जाता है
बातें मेरी रखता खुद तक
दूसरों के सामने कभी नहीं कहता है
मेरा दोस्त , एकांत का साथी
सच्चा मित्र है वह मेरा
तकलीफ होने पर भी
साथ मेरा ना छोड़ता
सारे सुख , दुःख - दर्द मेरे
पूरे - अधूरे सब जज़बात
ना हो मेरी इजाजत तो
छुपाये रखता मेरे अनगिनत राज़
ऐसा अनोखा वह राज़दार
मेरी सभी इच्छाओं का करता मान
एक कोरे काग़ज़ के अलावा
और कौन हो सकता हैं ?
