जुगनू जैसी उम्मीदें मेरी
जुगनू जैसी उम्मीदें मेरी
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जुगनू जैसी उम्मीदें मेरी,
कभी जलती है कभी बुझती है,
तितर-बितर उड़ती है,
ना आस किसी से लगाती है,
कभी यूं ही दीवारों पर,
स्थिर सी बैठ जाती है,
जुगनू जैसी उम्मीदें मेरी...
रात अंधियारे में,
सन्नाटे किसी कोने में,
स्वयं के जीवित होने की,
एक चमक सी जल उठती है,
वहीं कभी खुद के रौशन होने से,
वापस उड़ना भूल जाती है,
जुगनू जैसी उम्मीदें मेरी।