जिनके चेहरे नहीं
जिनके चेहरे नहीं
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छिपा रखी हैं पैनी आँखें
चुनरी से ढँके चेहरे की ओट में
देख सकती हैं बिल्कुल साफ साफ
उन चेहरों को
जिनके चेहरे नहीं होते
देशद्रोही की तरह
नहीं होता जिनमें थोड़ा भी नमक
जो जिस्मों को भी पढ़कर फेंक देते हैं
किसी बासी अख़बार की तरह।
भोर से गोधूली तक
मेहनतकश हाथ उठाते हैं मेरा बोझ
बहाती हूँ जिस्म से नमकीन पानी ,और
रोज रात पकाती हूँ इमान की खिचड़ी
बाँट देती हूँ अपने बच्चों में बराबर बराबर
फिर।
निढाल शरीर को सहलाती हैं
मेरे चाँद की शीतल किरणें
सुबह का सूरज भर देता है मुझमें
असीम ऊर्जा
निकल पड़ती हूँ अपनी सखियों के संग
रोज की तरह
दो जून के लिए।