जिंदगी : संघर्षों के आईने से
जिंदगी : संघर्षों के आईने से
मैं थी बीज ,
नन्ही –सी…
नगण्य
दबी पड़ी थी कहीं ,
मिट्टी के अन्दर ,
जद्दोजहद चल रही थी
निकलने को बाहर
दुनिया देखने की और...
बढ़ते रहने की ,
संघर्ष की पहली शुरुआत ,
हो चुकी थी |
मैं तब थी बीज
नन्ही सी ....
फिर फूटा अंकुर एक...
मिला रास्ता बाहर आने का ,
फिर बढ़ने की जिद- सी ठानी ,
बीज से वृक्ष बनने तक मेरी
संघर्ष की कहानी |
जब अंकुर फूटा ,
कोई कुचले ना ...
कोई मसले ना...
एक बाड़ी के अन्दर , चुपचाप यूँ ही ,
उस डर से खड़ी थी बचते बचाते सबसे फिर ,
बढी थोड़ी और कोंपले फूटी...
पत्तियां आयी ,
तब भी कोमल सी थी मैं ,
टिके रहने की जिद में ,
फिर संघर्ष किया |
साल-दर साल बीते
वर्षा, धूप, बसंत, पतझड़ आये-गए
सब मैंने देखे...
और फिर एक ,
मजबूत वृक्ष की शक्ल मिली |
फिर भी न ख़तम हुआ संघर्ष मेरा.
तूफ़ान आया जब भी
उसके थपेड़ों से लड़ के रही खड़ी मैं
छाँव दिया जब तक
बगीचे में लगी रही |
दिया मैंने अपना सर्वस्व..
आसमान छूने को भी
बढ़ती रही लगातार |
फिर एक दिन गिर पड़ी
किया था तब भी संघर्ष
पर जाना तो था...
क्योंकि यही नियति मेरी
यही कहानी ||
पर थी जब तक....
विश्राम न किया था
जिसने माँगा जो भी दिया था
ज़िन्दगी भी ठीक ऐसी ही है
विश्राम का वक़्त नहीं
रफ़्तार में बस भाग रही
लुटा रही सबकुछ अपना...
ना दो घड़ी भी सुस्ता रही
है गजब इसकी भी कहानी
जब चलना सीखा था ,
तब दौड़ने की चाह थी
जब लगी दौड़ने ,
तब उड़ने की ख्वाहिश जगी |
अब बता तू ही जरा
ऐ ज़िन्दगी कब आराम देगी?
जो ना ढले वो शाम देगी?
बता जरा कब मेरी ख्वाहिशों को
एक नाम देगी?
कब मेरे संघर्षों को विश्राम देगी?
जो मैं आगे बढ़ने की जिद में ,
खुद की खुशियाँ छोड़ आयी पीछे
उन खुशियों को वापस कब मेरे
नाम करेगी?
ऐ ज़िन्दगी तू कब सुकून के दो पल देगी
मेरी चाहतों पे अंकुश लगा
कब वो असल मुस्कान देगी?
उलझने दिल में छुपा ,
झूठी हँसी हँस रही मैं
कब रोबोट बने मेरे शरीर को
इंसान देगी?
बता जरा कब तू आराम देगी ?
सच पूछो तो..
मैंने अपनी चाहतों को जिया कहाँ?
बस भीड़ के पीछे ही भागती रही
जो दायरा बना दिया समाज ने ,
बस उसी में घुटती रही
एक कमरे के मकान से ,
चार महाले की इमारत तक
पैदल चलने से ,
कार में बैठने तक
फिर जहाज़ में उड़ने तक
बस संघर्ष ही करती रही |
ना सुस्ताया कभी
किसी ठौर बैठ कर |
कहा सबने भागने को...
और,
मैं वक़्त की रफ़्तार पकड़ती रही.
जवानी थी ..जोश था
आसमान छूने का दबा एक ख्वाब था
ना समझी की...
उस ख्वाब के पीछे भी
एक खोया ख्वाब था...
पर कर नजर-अंदाज उसे भी ,
अपनी धुन में भागती रही |
थकी थी मैं भी..
पर सुस्ताने का समय ना था |
जवानी तो यूँ ही बिता दी
भागते भागते
ठहराव में फिर...
एक खालीपन सा आ गया
अब जो चाहा था ज़िन्दगी से
वो सब कुछ तो पा लिया
तो अब संघर्ष कहाँ था?
नहीं ...
वो अब भी करना थाखुद से |
जैसे मैं भागती आयी थी ,
वही नियति सबकी है |
मैं भले सुस्ता रही थी
पर औरों की ज़िंदगी तो भाग रही थी
जैसे कभी मेरे पास वक़्त ना था
वैसे ही आज उनके पास भी समय नहीं
अब भीड़ नहीं दोस्तों की ,
अकेलापन सा कचोटता है |
ऐ ज़िन्दगी तू कब मुझे संतोष देगी ?
जिया है मैंने भी ये कब कहेगी?
बता जरा कब तू आराम देगी?
रातों में भी तब ना सोते थे
बेहतर और बेहतर होने के लिए...
धीरे धीरे कुछ हम घटते थे
सफ़र जब अन्तिम पड़ाव पर आया
तब जीवन का मर्म पहचाना
यही नियति है मानव की
संघर्ष बस संघर्ष ही कहानी है |
सूनी आँखों से ढूंढती हूँ
अब तो कोई मिलने भी नहीं आता
बैठी रहती हूँ ..
यूँ ही बरामदे में ,
पथराई आँखों से निहारती हूँ
अब तो बूढी आँखों में ख्वाहिशें नहीं बची ,
फिर भी जैसे अपनी
कमजोरियों से संघर्ष करती हूँ |
भूख लगे तो बाट जोहती हूँ
काँपती हूँ …
जब चलती हूँ |
इस पड़ाव पर भी संघर्ष करती हूँ
शरीर थक गया है..
विश्राम कहाँ है ?
यही नियति मानव की
यही कहानी है |
जिसने संघर्ष किया नहीं
स्वाद जीत का चखा नहीं है |
पर कैसा संघर्ष है ये ?
जो निरंतर चलता रहता है…
एक पल सुस्ताने को भी
कभी ना कहता है |
एक दौर में पालने से उठकर
चलने के लिए...
फिर दौड़ने के लिए
फिर ख्वाहिशों के जहाज में ,
उड़ने के लिए हर दौर में ...
बस एक युद्ध है |