जिंदगी इस तरह जीती हूँ
जिंदगी इस तरह जीती हूँ
हजार बरस जीना है
इस सोच के साथ योजनायें बनाती हूँ
पूरी इस सोच के साथ करती हूँ
जैसे कल ही मर जाना है
जिंदगी कुछ इस तरह जीती हूँ..!
सैर करने निकलती हूँ
तो रास्ते में मिलने वाले
अनजान लोगों से बतियाती हूँ
उनके खट्टे-मीठे अनुभवों को
सुनते हुए मंद-मंद मुस्करा कर
उन्हें अपना मित्र बनाती हूँ
जिंदगी कुछ इस तरह जीती हूँ..!
शाम को सब्जी लेने निकलती हूँ
सब्जी वाले का कुशल-क्षेम पूछती हूँ
बुखार, पेट दर्द की दवाई बता कर
गिलोय देने का वादा कर लौटती हूँ
कुछ चिंता उसकी कम कर आती हूँ
जिंदगी कुछ इस तरह जीती हूँ..!
गली में बच्चे खेलते हैं झुंड में
बार-बार गेंद मेरे घर आती है
गेट खोल, गेंद ले उड़नछू हो जाते हैं
गेट की खड़-खड़ से तंग आकर
झुँझलाती, डाँटने निकलती हूँ।
पर दादी प्रणाम! दादी प्रणाम सुन
मुस्करा कर, सबको आशीर्वाद बाँट
हँसते हुए घर में आ जाती हूँ
जिंदगी कुछ इस तरह जीती हूँ..!
