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Surendra kumar singh

Inspirational

4  

Surendra kumar singh

Inspirational

जीवन रिश्तों का मेला है

जीवन रिश्तों का मेला है

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रिश्तों के मेले में है जीवन

और रिश्तों की तासीर

खूबसूरत तस्वीर सी हो गयी है

मेले में चलती फिरती तस्वीरों की भीड़ है

तस्वीरें चल रही हैं

बात कर रही हैं

हालचाल पूछ रही हैं

और वो इसलिए कि रिश्ते निभाने हैं

रिश्तों के मेले में है जीवन

और रिश्ते औपचारिक हो गये है

रिश्ते जो बनाये थे मनुष्य ने

समाज से,देश से,परिवार से,विदेश से

जीवन की सहजता और खुशी के लिये

अब बोझ से हो गये हैं

रिश्तों का बोझ लिये

भटक रहा मनुष्य रिश्तों के मेले में

रिश्ते जीवंत नहीं रहे

जाहिर है समाज मे अफरातफरी है

और देश में युद्ध का उन्माद।

देश, विदेश सा लगता है

और जीवन औपचारिक।

जिये जा रहे हैं रिश्ते

बिना किसी उत्साह के

बिना किसी उद्देश्य के

और अगर ये हैं भी तो

बस अपनी पहचान के निमित्त।

सहज जीवन जीवंत होता है

और ये है भी बचा हुआ

अटूट,अविश्सनीय

अदृश्य

जैसे कोई रिश्ता उभर रहा है

रिश्तों के मेले में

या जो रिश्ता था

उसकी जरूरत महसूस हो रही है

जैसा कि है आदमी और प्रकृति के बीच

और प्रकृति खुद ही निरूपित कर रही है

रिश्तों के नये आयाम

जीवन की सहजता के लिये

जिन्हें मनुष्य ने ही बनाया था

जीवन की सहजता और आनन्द के लिए

जिनके बोझ से रिश्तों के मेले में

जीवन दूभर सा हो गया है।

यकीनन अब ये महसूस होने लगा है

जीवन सबसे बड़ी जरूरत है मनुष्य की

जो यूँ मिल गया था बिना प्रयास के

और जिसे सुविधाजनक बनाने के

अनगिनत प्रयासों के बावजूद

जीवन बोझ सा हो गया है

और औपचारिकता

नेतृव कर रही मनुष्य का।

जीवन का सम्बंध तो

रिश्तों की जीवंतता से है

जिसे मनुष्य ने ही बनाया था।


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