जीवन की प्रकृति
जीवन की प्रकृति
गिड़गिड़ाते वक़्त हम नहीं सोच पाते
कि रिश्ता बचेगा तब भी नहीं
हँसते हुए, भूल में फेर देते हैं आँसुओं की मेहनत पर पानी
इन्तिज़ार में, भविष्य को अतीत के भाव में बेच देते हैं
सुख की निर्लज्जता में
भूल जाते हैं समय की गति
और दुःख के घमण्ड में
निगल बैठते हैं आख़री भी उम्मीद
हम होते हुए भी वो नहीं होते, जो हम हैं
जो हम हैं, उसे जानते हुए भी मानते नहीं हैं।