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Anju Singh

Abstract

4.5  

Anju Singh

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जी चाहता है

जी चाहता है

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231



मन मेरा थोड़ा सुकून सा चाहता है

रात का चाॅंद प्यारा लगता है

हर सितारा हसीन लगता है

क्या कहूं खुला गगन बहुत प्यारा लगता है


जी चाहता है आकाश छू लूं

कभी धूप की चादर ओढ़ लूं

कभी बादलों संग घूम घूम कर

पूरें आसमां की सैर मैं कर लू



कभी बरखा के बरसतें पानी को

अपलक निहारा करूं

कभी उस पानी में भींग भींग कर

मदमस्त हो जाया करूॅं


गूंगी बहरी इस दुनिया को छोड़

ऊपर ही उठ जाया करूॅं

लंगड़ी लूली मान्यताओं को 

कहीं फेंक आया करूॅं


पल भर में तों ये दुनिया

झिड़क देती है मुझें

हर बात पर कटघरें में

खड़ी कर देती है मुझें



उनकें हर सवाल का

क्यूं मैं ज़बाब दूं

अपनी ही जिंदगी को

खुद ही क्यूं ना सॅंवार लूं



खो गए हैं जो रिश्तें

उन्हें फिर से क्यूं ना संजों लूं

टूट गए जो अपनों के दिल

मन मेरा उन्हें फिर मिलाना चाहता है



ख्वाब देखें हैं जो हमनें

दिल सच बनाना चाहता है

सपनों में जो उम्र है गुजरी

वो हकीकत में जीना चाहता है


कभी झूठ भी बोला खुद से हमनें

अब सिर्फ़ सच बोलना चाहता है

अब अंधेरों में नहीं

सिर्फ़ उजालों में दिल उड़ना चाहता है


कभी मन से खुश होकर

सारें जहाॅं को हॅंसाने को जी चाहता है

रोज जिंदगी की दौड़ भाग-भाग से

थोड़ा ठहर जानें को जी चाहता है


कभी महफिलों को छोड़कर

दिल खुद में ही सिमटना चाहता है

कभी यूं ही खाली बैठकर

दिल कुछ गुनगुनाना चाहता है


मदमस्त जुगनू को देखकर

दिल वैसा चमकना चाहता है

इन बहती हवाओं के जैसा

दिल फिजाओं में घुलना चाहता है


मेंहदी के गहरें लाल सा

कुछ रचनें को जी चाहता है

जिंदगी को सुनहरें शब्दों में

बंया करने को जी चाहता है



कभी मन इन पक्षियों सा

चहकना चाहता है

कभी फूलों की खुशबू सा

महकने को जी चाहता है


ख्वाहिश नहीं कुछ और पानें की

दिल खुद को पाना चाहता है

बीती हुई ज़िन्दगी को

फिर लिखने को जी चाहता है।


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