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Mayank Kumar

Abstract

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Mayank Kumar

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झुलसा किसान

झुलसा किसान

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रोज डूबता बिखरता रहा है

किसी गांव के झुलसे किसान

कि तरह मेरे आसपास के मंजर

जिसे तबाह किया करते हैं

अपनों से दिख रहे प्रिय लोग

जो एक सीधे किसान सा मन को 

पल पल मृगतृष्णा में फँसाया करते हैं


आमदनी से कम चिंता की लकीरें

ललाट और चेहरे पर खिंचवा देते हैं

प्रेमचंद के गोदान की नायक की भांति

और हर पल मानो ऐसा लगा करता हैं

कई मन आपस में ही उलझ कर

कई बातों को सुलझाने के बहाने

किसी दलदल में फंसे चले जा रहे हैं

बेवक्त समय के पहिए के तलवे से

आहिस्ता आहिस्ता कुचले जा रहे हैं



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