झाँसी की रानी
झाँसी की रानी
किताबों कविताओं में पढ़ी हमने एक कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी
वह तो झाँसी वाली रानी थी
लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं वीरता कि अवतार
चमक उठी सन सत्तावान मौन उसकी यह पुरानी तलवार
बूढ़े भारत में लायी उसने नई जवानी थी
भारत को आज़ाद करने की उसने मन मैं ठानी थी
कानपुर के नाना की बहन छबीली थी
बुंदेलखंड की वह संतान अकेली थी
नक़ली युद्ध व्यूह कू रचना उसको बहुत भाता
जो भी देखता उसकी वीरता को देखते ही रह जाता
वीर शिवाजी की गाथाएं उसको याद ज़ुबानी थी
बर्छी ,ढाल , कृपाण ,कटारी उसकी यही सहेली थी
विवाह हुआ रानी बनी झाँसी में
ख़ुशियों की बौछार अब आई झाँसी में
रानी हुईं विधवा ! काल को भी दया न आइ
उदासी की लहरे अब झाँसी मे छाई
अंग्रेजों ने यह राज्य हड़पने का अच्छा अवसर पाया
झाँसी को अपना बनाने वो आया
था रानी को अपने वतन से बहुत प्यार
भारत के लिए चाहती थी वन अंग्रेजों से वार
कहा उसने “नहीं दूँगी झाँसी अपनी”
कहा “मैं ना रहूँ पर भारत रहना चाहिए ”
रानी तुम प्रेम हो
वीरता का प्रतीक हो
टूटी हुई उम्मीदों की तुम्हीं एकमात्र आस हो
शुरू हुईं युद्ध की तैयारी
रानी पड़ेगी फिरंगियों पर भारी
अंग्रेजों से हुईं लड़ाई
रानी ने वीरता थी अब दिखलाई
अंग्रेजों ने रानी से मात खाई थी
लक्ष्मी की वैभवता अब हर जगह छाई थी
रानी एक, शत्रु अनेक, होने लगे वार पर वार
घायल होकर गिरी सिंहनी
और गंगा किनारे प्राप्त हुईं उसे वीर गति
ऐसी रानी को मेरा सलाम
और सादर प्रणाम।।