जेपी की दरकार
जेपी की दरकार
सिकुड़ती सिमटती लोकसता चहूं ओर चुनावों की लगी लंबी कतार है!
देश कराह रही अंत: कलह से ,वेदना आखिर कहाँ तक सही जाए।
देश पुकार रही फिर आज एक जेपी की दरकार है!
हमारी तुम्हारी हर सच्चे हिंदुस्तानी की यही गुहार है ;
बचा लो अक्षुण्ण, अखंड राष्ट्र को माँ की भी बेटे को पुकार है।
जोड़ - तोड़ में मदमस्त हैं ये तोंद बढ़ाये दमघोंटू !
जिसको जितना बन रहा चाह रहा ले लुटूं!
अरे वो जाहिलों जागो कुंभकर्णी नींद से तुम
चारों ओर अपनों की पीड़ा की सुनाई पड़ रही कराह है!
देश को आज फिर एक लोकनायक की ललकार है।
गाँधी बुद्ध की धरती पर आज हिंसा नाच रही नंगी ,
झूठमूठ की हमदर्दी जताते ये उजले चोला पहनकर
अंदर से काले हैं ये बहुरंगी! जो देश का पेट भर रहे उनके तन पर चोला नहीं !
कुचले जा रहे आवाज आज हम मूक चुपचाप गुलजार हैं!
देश पुकार रही फिर एक जयप्रकाश की दरकार है।
