जागरण के बाद
जागरण के बाद
यतीम होते
सपनों को
संवारने की
कोशिश में
टूटती हूँ अक्सर
पारे की तरह
और बिखरने के
सीमांत पर
जुडती हूँ पूनः
चुंबक की तरह
बोने लगती हूँ
आशा के बीज
करने लगती हूँ
सपनों की खेती
और सोचती हूँ
किसी अलसाई
भोर में
आए एक मीठा
सपना
जो सच हो जाए
जागरण के बाद।
