इंसानियत बची कहाँ
इंसानियत बची कहाँ
अब इंसानियत बची कहाँ
था मानता बरसों से
जिसको भगवान्।।
वो बन गया अब हैवान।
कोई तड़प रहा
इक-इक साँस को
और कोई बस लूट रहा
गरीबों के खून-प्यास को।
जिन्दगी जा रही
दो कौड़ियो के भाव में।
और कुछ खुदगर्ज़
सिर्फ़ कफ़न बेच रहा है।।
