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Nilesh Kumar

Crime

4  

Nilesh Kumar

Crime

इंसान या हैवान !

इंसान या हैवान !

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अपनी अपनी ज़िंदगी की भी एक रफ्तार है होती,

और ख़ुशियाँ किसी की मोहताज नहीं होती।

न जाने खुशी की चाह ने तुझे इतना क्या बेपरवाह किया,

जो सोच समझ से परे मासूमियत को क्षण में धुआँ किया।

जिस बचपन को तुमने जिया उस बचपन को सबने है जिया,

जहां में कितने ऐसे हैं जिसने ज़िंदगी भर है गमों को पीया।

तुम्हें कुछ पाने की हसरत जगी और भूल बैठे इंसानों के संस्कार,

कैसे रहम ना आया तुझे हमें तो जानवरों से भी होता है प्यार।


उसे मेहरबानी की उम्मीद थी और तुमने पल में ज़िन्दगी छीन लिया,

क्यूँ अपनी खुशी की ख़ातिर उसे बेबस और लाचार किया।

अरे भूलकर इन बेमतलबी इरादों को थोड़ा तो शर्म किया होता,

इंसानियत भूल जाने से पहले माँ बहन को याद किया होता।

तब भी लज्जित ना हो ख़ुद से तो, ख़ुदा के क़हर से डरो  

ज़िल्लत भरी जिंदगी से अच्छा ज़िंदगी हँसते हुए क़ुर्बान करो।

जब नर्क के चौखट पर खड़ा पहरेदार भी तुम्हें देखेगा,

उस नर्क की हर शख्सियत भी  तुम पे बारी बारी थूकेगा।


कैसे समझा सकोगे की तुमने कुछ भी नहीं बेकार किया,

अपनी हवस मिटाने की ख़ातिर एक मासूम को मार दिया।

अरे ये कैसा तुम्हारा नर्म भाव और संस्कार है,

जहाँ ना कोई हमदर्दी ना ही किसी से प्यार है।


एक बार तो सोचा होता उसे आग के हवाले करने से पहले,

थोड़ा सा तरस तो खाया होता उसकी मासूमियत पे,

उसे मारने से पहले।

बुज़दिल होकर भी क्या अपने पर होता तुझे अभिमान है,

वो तेरी निज़ी सम्पत्ति नहीं, वह भी एक इंसान हैं।


एक ही समाज में पले बढ़े, फिर हम क्यूँ इतने बदल गए।

उसने जानवरों से भी प्यार किया और तुम अपने ही

ज़मीर का क़त्ल किए।

इस खेल में ज़माने को बता भला 

कहाँ तेरी जीत और कहाँ उसकी हार है,

ना दिलों में ज़माने के लिए हमदर्दी न ही किसी से प्यार है।

जो इंसानियत को भूला दिया वह एक कलंकित हैवान है।

बस इंसानों की खाल ओढ़े, भीड़ में वह दिखता इंसान है।


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