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Zeest None

Drama Inspirational

1.7  

Zeest None

Drama Inspirational

इंकलाब

इंकलाब

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मुझसे इस वास्ते ख़फ़ा हैं हमसुख़न मेरे

मैंने क्यों अपने क़लम से न लहू बरसाया

मैंने क्यों नाज़ुक-ओ-नर्म-ओ-गुदाज़ गीत लिखे

क्यों नहीं एक भी शोला कहीं पे भड़काया


मैंने क्यों ये कहा कि अम्न भी हो सकता है

हमेशा ख़़ून बहाना ही ज़रूरी तो नहीं

शमा जो पास है तो घर में उजाला कर लो

शमा से घर को जलाना ही ज़रूरी तो नहीं


मैंने क्यों बोल दिया ज़ीस्त फ़क़त सोज़ नही

ये तो इक राग भी है, साज़ भी, आवाज़ भी है

दिल के जज़्बात पे तुम चाहे जितने तंज़ करो

अपने बहते हुए अश्कों पे हमें नाज़ भी है


मुझपे तोहमत लगाई जाती है ये कि मैंने

क्यों न तहरीर के नश्तर से इंक़लाब किया!

किसलिये मैंने नहीं ख़ार की परस्तिश की!

क्यों नहीं चाक-चाक मैंने हर गुलाब किया!


मिरे नदीम! मिरे हमनफ़स! जवाब तो दो

सिर्फ़ परचम को उठाना ही इंक़लाब है क्या?

कोई जो बद है तो फिर बद को बढ़के नेक करो

बद की हस्ती को मिटाना ही इंक़लाब है क्या?


दिल भी पत्थर है जहां, उस अजीब आलम में

किसी के अश्क को पीना क्या इंक़लाब नहीं?

मरने-मिटने का ही दम भरना इंक़लाब है क्या?

किसी के वास्ते जीना क्या इंक़लाब नहीं?


हर तरफ़ फैली हुई नफ़रतों की दुनिया मे

किसी से प्यार निभाना क्या इंक़लाब नहीं?

बेग़रज़ सूद-ओ-ज़ियाँ की रवायतों से परे

किसी को चाहते जाना क्या इंक़लाब नहीं?


अपने दिल के हर एक दर्द को छुपाए हुए

ख़ुशी के गीत सुनाना भी इंक़लाब ही है

सिर्फ़ नारा ही लगाना ही तो इंक़लाब नहीं

गिरे हुओं को उठाना भी इंक़लाब ही है


तुम जिसे इंक़लाब कहते हो मिरे प्यारों

मुझसे उसकी तो हिमायत न हो सकेगी कभी

मैं उजालों क परस्तार हूं, मिरे दिल से

घुप्प अंधेरों की इबादत न हो सकेगी कभी


ख़फ़ा न होना मुझसे तुम ऐ हमसुख़न मेरे

इस क़लम से जो मैं जंग-ओ-जदल का नाम न लूं

ये ख़ता मुझसे जो हो जाये दरगुज़़र करना

जि़क्र बस ज़ीस्त क करूं, अजल का नाम न लूं


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