इल्जाम ...
इल्जाम ...
यही इल्जाम रातभर हमपें लगता रहा,
यही है जिसके लिये वो जगता रहा...
हमने तो उनके लिए हमेशाही मांगी दूवाये,
जाने क्यो वो हरजाई हमे कहता रहा...
बाते तो बेहीसाब हमने की उनसे मगर,
और कुछ कहना था वो हमे पुछता रहा ...
खिलती सांज भी आगंण में धुंदलाती,
रात मे वो चाँद की तरहा आँखो में खिलता रहा...
क्या थी ख्वाईश उनकी हमें ये पता ना था,
बिना शर्त साया बनके वो साथ हमारे चलता रहा...
हमने जब महसुस किया कुछ तो है दरमियाँ,
तब तक डोली में बैठे आचल उनका भिगता रहा...

