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Dishita Kulshrestha

Romance Tragedy

4  

Dishita Kulshrestha

Romance Tragedy

इबादत

इबादत

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इंतकाम के ज़हर को भी उल्फ़त बना दे

वो है इश्क़ की पांचवी सीढ़ी 'इबादत' 

बेपरवाह रूह को भी 

हुस्न में बांधे,

ऐसी थी मेरी शिकायत । 


उस शख्स के शायराना लफ़्ज़ों सी 

मेरे लबों पे रुस्वाई थी। 

इस बेबस डायरी के 

अश्कों से लिपटे पन्नों पर 

बस गहरी काली स्याही थी। 

आदतों की ऐसी आफ़त थी

उसकी दग़ा भी बनी मेरी इबादत थी 

जो प्यारी बातें कभी लिख कर भेजा करते थे

मिलने पर वो वादे भी ढीले हकलाये शब्दों से निकले 

अब लगने लगा, 

क्या इस हिमाकत के लिए इतनी दूर से आयी थी ?

शिद्दत से ये आँखें तरसाई थीं ?

गाफ़िल ये जान है जो इसपर मरने आयी थी ? 


लेकिन उस प्यारी आवाज़ में कुछ तो बात थी 

उन ढीले वादों में भी 

पक्के जज़्बात थे 

उसके चोट खाये दिल की झिझक को 

मैं भी तो नहीं समझी 

जो पहले से ही टुकड़ों में था 

उससे और तोड़ आयी थी 

कुछ हिस्से जोड़ने का वादा मैंने भी तो लिखकर ही क्या था

क्यों हर नाकामयाब उम्मीद को उसका ही कन्धा दिया था 

जब दिल ने गलती मान ही ली थी 

तो वापिस ही चली जाती 

पर अब क्या 

ये तो आखरी मुलाकात थी! 

कसूर मेरा ही था 

जो यूँ जाने दिया 

असर ढाने वाले से

तन्हाई का सौदा किया 


काश! 

उस दिन उसके बुलाने पर नज़र उठाई न होती 

पलकों से ज़ुल्फ़ें हटाई न होती 

हटाने पर बात चलाई न होती 

उन बातों पर यूँ मुस्कुरायी न होती 

मुस्कराहट पर शरमाई न होती 

और यूँ ज़िन्दगी उलझाई न होती 


इतनी तो इज़्ज़त खुदमें रख सकती थी 

की आईना मुझे उससे अलग पहचान पाता। 

मैं, मैं ही रहती 

और

तुम, तुम ही रहते। 

काश! 

इन ५० पंक्तियों की तपिश 

तुझमें भी सुलगा पाती। 



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