हर गली से वज़ीर-ए-आज़म
हर गली से वज़ीर-ए-आज़म
क्या ग़ज़ब के अहद-ए-सियासत से गुज़र रहे हैं
हर गली से वज़ीर-ए-आज़म उभर रहे हैं।
वाबस्ता नहीं जो तारीख़ के किसी भी शय से
तारीख़ का उन्वान बदलने को मर रहे हैं।
कैसे कैसे हैं खेल हर तरफ फरेब के
उजड़ने वाले ही कहते हैं निखर रहे हैं।
अभी ख्वाबों में सियासत का चारा डालो
अभी गलियों में भेड़ बकरी चर रहे हैं।
कभी मिसाल ओ किरदार से लोग बढ़ा करते थे
अब तो तकरीरों से ही जन्नत उतर रहे हैं।
अभी चरागों की जो बातें करते हैं
कभी हवाओं के रेहगुज़र रहे हैं।
शोर न करना कि अंधेरों में सने पकोड़े
अभी इबादत की कढ़ाई में उतर रहे हैं।
मेरे इनकार की देखो खबर ना फैला देना
अभी चूहे सियासत की अखबार कुतर रहे हैं।
