सब धूप प्रेम का ढल गया
सब धूप प्रेम का ढल गया
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धीमा दरिया हो रहा,
सब नीर रेत में खो रहा,
सब धूप प्रेम का ढल गया
अब सूर्य स्वप्न का सो रहा।
वो पूर्णिमा सी चंद्रिमा,
दो नैन थे के ज्वार थे,
हम डूबते बहते कभी,
और मग्न भी रहते कभी।
अटखेलियों के द्वार से
हम प्रेम की फुलवारियों से
आ गए बाज़ार में,
अब कोसते हैं खुद को हम
वो नैन तो पतवार थे !
बाज़ार के इस आग में,
पतवार भी वो जल गया
जो ज्वार था संभल गया,
सब धूप प्रेम का ढल गया
सब धूप प्रेम का ढल गया !